जीरो बजट खेती का अर्थ होता है कि फसल को बिना किसी उर्वरक, कीटनाशक एवं दूसरे रसायन के प्रयोग के किया जाए। ये एक प्रकार से किसान के लिए प्राकृतिक एवं जैविक खेती होती है। इनके स्थान पर इस प्रकार की प्राकृतिक खेती में प्राकृतिक खाद्य का इस्तेमाल होता है। खेती में गाय के गोबर, गौमूत्र एवं पत्तियों की खाद्य का इस्तेमाल होता है। इस प्रकार से इस खेती में किसान की लागत नगण्य आती है। एक ओर खेती को लेकर यह धारणा बनती जा रही है कि ये काफी महँगा काम है। तो दूसरी ओर जीरो बजट फार्मिंग से कम खर्च पर खेती सम्भव है।
हमारे देश में खेत के छोटे होने पर खेती लागत में वृद्धि हो जाती है चूँकि खेत की श्रम एवं लागत की गणना सीधे सूत्र से नहीं चलते है। इस प्रकार से कम जोत के किसान के लिए अस्तित्व की लड़ाई काफी कठिन है। इस परेशानी का समाधान जीरो बजट खेती से मिलता है चूँकि इस प्रकार की खेती में लागत कम हो जाने पर प्रॉफिट बढ़ जाता है।
जीरो बजट प्राकृतिक कृषि क्या है?
यह देसी गाय के गोबर एवं मूत्र पर आधारित खेती है, इस प्रकार से एक देसी गाय के गोबर एवं मूत्र से तीस एकड़ जोत पर जीरो बजट खेती संभव है। देसी गाय के गोबर-मूत्र से जीवामृत, घनजीवामृत एवं जामन बीजामृत बनता है। इन सभी के इस्तेमाल से खेत की मिट्टी में पोषक तत्व में बढ़ोत्तरी के साथ अन्य जैविक गतिविधियों का फैलाव हो जाता है। महीने में एक या दो बार जीवामृत को छिड़क सकते है जबकि बीजामृत का प्रयोग बीजो पर किया जाता है। इस तरह से ज़ीरो बजट खेती करने वाले किसान को मार्केट में जाकर किसी अन्य उर्वरक केमिकल अथवा कीटनाशक को खरीदने की आवश्यकता नहीं रहती है। खेती के सिचाई कार्य के लिए पानी एवं बिजली का भी वर्तमान की खेती-बाड़ी मुकाबले दस फीसदी ही खर्चा आता है।
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देश में जीरो बजट खेती का आरम्भ
जीरो बजट खेती का उद्भव मुख्य रूप से महाराष्ट्र के एक कृषक ‘सुभाष पालेकर’ की विकसित रसायन मुक्त खेती से हुआ है। जीरो बजट प्राकृतिक खेती की विधि परंपरागत कृषि से सम्बंधित है। इस खेती में उर्वरक, कीटनाशक, गहन सिचाई की जरुरत नहीं रहती है। इस प्रकार से इस विधि से आप किसी भी फसल की खेती करें उसका लागत मूल्य शून्य ही आता है। इस खेती में प्रयोग होने वाले सभी संसाधन किसान के घर पर ही प्राप्त हो जाते है। जैसे कि देसी गाय का गोबर एवं मूत्र का जीवामृत, घनजीवामृत से मिट्टी में पोषक तत्वों में बढ़ोत्तरी के साथ ही जैविक घटको का विस्तार होता है।
जीरो बजट प्राकृतिक खेती की आवश्यकता क्यों
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (NSSO) के सर्वे के अनुसार देश के 70 प्रतिशत से ज्यादा कृषको को अपनी आमदनी आमदनी का बड़ा हिस्स्सा खेती में लगाना पड़ रहा है। इस प्रकार से उनके ऊपर कर्ज का बोझ भी बढ़ता जा रहा है। सबसे अधिक 90 प्रतिशत तक कर्ज आंध्र एवं तेलंगाना जैसे प्रदेशों में देखने को मिलता है। करीबन प्रत्येक परिवार पर 1 लाख रुपए तक का कर्ज है।
प्राकृतिक खेती के चार घटक
जीवामृत
इसमें किसी भी भारतीय गाय (देसी गाय) का गोबर-मूत्र, दूसरी घरेलु सामग्री जैसे – गुड़, दाल आटा एवं साफ़-सजीव मिट्टी को मिलकर तैयार घोल का प्रयोग होता है। ये मिश्रण जमीन के सूक्ष्म जीवाणुओं की संख्या को बढ़ाता है। यह परंपरागत खेती से भिन्न होती है चूँकि इसमें गाय के गोबर-मूत्र को जैविक खाद्य की तरह नहीं यद्पि एक जैव-जामक की भाँति इस्तेमाल करते है। ये जामक जोत के लाभप्रद सूक्ष्म जीवाणु और केंचुओं की संख्या और गतिविधियों को अच्छे स्तर तक बढ़ाता है। इस प्रकार से जमीन के पोषक तत्व फसल को आसानी से मिलते है। साथ ही फसल एवं पौधो को नुकसानदायक जीवाणुओं से सुरक्षा एवं जमीन में ‘जैविक कार्बन’ में वृद्धि होती है।
बीजामृत
इसमें देशी नस्ल की गाय के गोबर-मूत्र एवं बुझे चुने से बने घटक के इस्तेमाल से बीज और पौधों की जड़ों पर सूक्ष्म आधारित लेप लगाकर इनकी नवीन जड़ों को बीज अथवा जमीन से जन्मे रोगो से सुरक्षा मिलती है। ‘बीजामृत’ के इस्तेमाल से फसल के बीज के अंकुरण क्षमता में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी देखने को मिलती है।
आच्छादन
जमीन में मौजूद नमी की रक्षा के लिए इसके ऊपर की सतह को किसी दूसरी फसल अथवा फसल के अवशेष से ढँक देते है। इस प्रकार की विधि से ‘ह्यूमस’ में बढ़ोतरी, भूमि की ऊपर सतह का संरक्षण, भूमि में जल संग्रह क्षमता वृद्धि, सूक्ष्म जीवाणुओं एवं पौधों के लिए जरुरी पोषक तत्वों में वृद्धि और खरपतवार में रोकथाम होती है। इसके अंतर्गत तीन विधियों का इस्तेमाल होता है –
वापसा (जमीन में वायु प्रवाह)
वापसा, जमीन में जीवामृत इस्तेमाल एवं आच्छादन का परिणाम होता है। जीवामृत के इस्तेमाल एवं आच्छादन करने से जमीन की संरचना में सुधार आता है और तेज़ी से ह्यूमस का निर्मिति होती है। अंत में इसके परिणामस्वरूप जमीन में उत्तम जल प्रबंधन की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। खेती ना तो बारिश-तूफान में गिरती है और ना ही सूखे से डगमगाती है।
व्हापासा
इस विधि के अंतर्गत खेती में नमी की वृद्धि की बढ़ोत्तरी के लिए प्राकृतिक विधियों का इस्तेमाल होता है। इसके अंतर्गत पौधे को जरुरी पोषण मिट्टी में मौजूद नमी एवं हवा के अणुओं से मिलता है।
जीवामृत बनाने की विधि
बहुत से प्रयोगो को बारम्बार करने के बाद यह निष्कर्ष प्राप्त हुए कि एक एकड़ जोत के लिए 10 किग्रा गोबर, गौमूत्र, गुड़ एवं दो- दले बीजों का आटा और बेसन इत्यादि को मिलाने के बाद इस्तेमाल करने पर अच्छे परिणाम प्राप्त हो रहे है। इस प्रकार से निम्न सूत्र से जीवामृत को तैयार कर सकते है।
- देसी गाय का गोबर – 10 किग्रा
- देसी गाय का मूत्र – 5 से 10 लीटर
- गुड़ – 1 से 2 किग्रा
- बेसन – 1 से 2 किग्रा
- पानी – 200 लीटर
- पेड़ के नीचे की मिट्टी – 1 किग्रा
जीवामृत की प्रयोग-विधि
जीवामृत को माह में एक अथवा दो बार (मात्रा उपलब्धता के हिसाब से) 200 लीटर प्रति एकड़ में पानी के साथ सिचाई करके छिड़कना होता है। ऐसा करने के खेती में चमत्कारिक परिणाम देखने को मिलते है। फलदार पेड़ के पास पेड़ में दोपहर 12 बजे छाया पड़ने पर उस छाया के पास प्रत्येक पेड़ में 2 से 5 लीटर जीवामृत एक माह में एक या दो बार डाल देना है। इसके डालते समय जमीन में नमी होना जरुरी है।
बीजामृत बनाने की विधि
किसी भी खेती अथवा फल-पौधे की उत्पादन क्षमता उनके बीज, पौधे अथवा कंद के निरोग होने पर आधारित होती है। खेती के ज्यादातर रोग, कीट अथवा दूसरे विकार बीज के ही द्वारा आते है। इसलिए जरुरी है की इनको लगाने से पहले इनका संस्करण किया जाए। इससे अलग-अलग प्रकार के बीज, पौधे, कंद अथवा पौधे जनित बीमारी, कीट अथवा दूसरे विकार खेती-पौधों को नुकसान ना कर पाए।
10 किग्रा बीज संस्कार में बीजामृत की सामग्री
- पानी – 2 लीटर
- देशी गाय का मूत्र – आधा लीटर
- गोबर – आधा किग्रा
- बुझा चुना – 1 चुटकी ( 5 ग्राम)
- पेड़ के तने के पास की मिट्टी – 1 चुटकी ( 5 ग्राम)
जीरो बजट खेती के फायदे
एक कृषक के लिए ज़ीरो बजट खेती तकनीक हर प्रकार से फायदेमंद रहती है। इन्ही में से कुछ बिंदु निम्न प्रकार से है –
- कम लागत – यह ज़ीरो बजट खेती का सर्वाधिक महत्वपूर्ण लाभ है कि इस खेती में किसान को खेती के लिए शून्य खर्च की लागत आती है। चूँकि इस प्रकार की खेती में कृषक अपने आसपास की चीजों से ही खेती की जरूरतों की पूर्ति कर लेता है। इस प्रकार से किसान को रसायन, खाद और दूसरी वस्तुओं के लिए हजारों रुपयों को नहीं खर्चना पड़ता है।
- मृदा संरक्षण – चूँकि इस खेती की तकनीक में केवल प्राकृतिक चीजों को ही प्रयोग में लाते है तो यह खेत की जमीन की मिटटी की गुणवत्ता में वृद्धि करती है।
- ज्यादा उत्पादन – एक परंपरागत एवं कारगर खेती तकनीक होने के कारण इस प्रकार की खेती में कृषक को अधिक मात्रा में फसल उत्पाद मिलता है।
- अच्छी गुणवत्तायुक्त उत्पाद – पिछले कुछ दशकों से कृषि क्षेत्र में कीटनाशकों और खतरनाक रासायनिक पदार्थों का इस्तेमाल ज्यादा मात्रा में होने लगा है। इस प्रकार की चीजों के प्रयोग से मनुष्य की सेहत पर बुरा प्रभाव देखने को मिल रहा है। इसके विपरीत प्राकृतिक खेती में इंसानों को सेहतमंद खाने का पदार्थ मिलता है।
- पर्यावरण संरक्षण – आधुनिक विधि से खेती करने पर कीटनाशक एवं जहरीले रासायनिक तत्व मिटटी एवं पानी में मिलकर वातावरण को दूषित कर देते है। इससे जलीय जंतुओं को भी काफी नुकसान होता है। इस प्रकार से प्राकृतिक खेती को अपनाकर इस प्रकार की समस्या से छुटकारा पा सकते है।
- पशुधन में बढ़ोत्तरी – जीरो बजट खेती में गोबर एवं मूत्र की जरुरत होती है अतः इन चीजों की जरुरत पूरी करने के लिए पशुओं की जरुरत होती है। इस प्रकार से इस कृषि पद्धति को अपनाने से पशुओं के संरक्षण एवं पालन-पोषण का महत्व बढ़ेगा।
जीरो बजट खेती के लिए सरकारी योजनाएँ
साल 2015 से ही केंद्र सरकार परंपरागत खेती विकास योजनाओं को लेकर प्रतिबद्ध होकर योजनाओं एवं राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के द्वारा प्राकृतिक खेती को विस्तृत करना चाहती है। साल 2018 में आंध्र प्रदेश ने 2024 तक शत-प्रतिशत प्राकृतिक खेती करने वाला प्रथम प्रदेश बनाने की योजना है। इनका मूल उद्देश्य प्रदेश के 60 लाख किसानों को ZBNF प्रक्रियाओं में बदलकर 80 लाख हेक्टेयर जमीन पर रासायनिक खेती करना है।
जीरो बजट प्राकृतिक खेती का महत्व
जीरो बजट खेती में गौपालक का भी खास स्थान है। चूँकि देशी प्रजाति के गौवंश के गोबर एवं मूत्र से जीवामृत, घन जीवामृत को बनाया जाता है। इनके इस्तेमाल से जमीन की मिट्टी के पोषक तत्व बढ़ जाते है और साथ में जैविक गतिविधियों का फैलाव होता है। जीवामृत का इस्तेमाल सिचाई के साथ अथवा एक से दो बार में छिड़काव में करते है। यद्यपि बीजामृत का प्रयोग बीजो के उपचार में करते है।
जीरो बजट प्राकृतिक खेती से जुड़े प्रश्न
देश में जीरो बजट प्राकृतिक खेती को किसने स्थापित किया?
साल 1990 के दौरान महाराष्ट्र के किसान सुभाष पालेकर ने हरित क्रांति के विकल्प की तरह रासायनिक उर्वरको एवं कीटनाशक के बिना भारी सिचाई पर आधारित है।
जीरो बजट प्राकृतिक खेती क्या है?
इस प्रकार की खेती में फसल में रासायनिक खाद्य एवं कीटनाशक की जगह प्राकृतिक खाद्य का इस्तेमाल होता है। इस प्रकार से केमिकल आधारित कीटनाशक के मुक्ति मिलती है। इसके स्थान पर गाय के गोबर, मूत्र एवं पत्तियों से बने खाद्य एवं कीटनाशक का प्रयोग होता है।
जीरो बजट खेती विशेषताएँ है?
जैविक खेती में वर्तमान समय में जुताई, झुकाना, खाद्य का मिश्रण, निराई इत्यादि की जरुरत रहती है। वही प्राकृतिक खेती में जुताई, निराई, मिट्टी का झुकाव नहीं होता है। साथ ही किसी अन्य उर्वरको की जरुरत नहीं होती है। खेती में उत्पादन प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र जैसा होता है।
जीरो बजट खेती अपनाने वाला पहला प्रदेश कौन सा है ?
इस तकनीकी को अपनाकर खेती करने वाला पहला राज्य आंध्र प्रदेश है साथ ही साल 2024 तक असम्पूर्ण प्रदेश में इस तकनीकी से खेती करने का लक्ष्य रखा गया है।