पहले विश्व युद्ध से पहले यह अनुमान मुश्किल था कि इस लड़ाई में उस समय के करीबन सभी मजबूत देश आ जायेंगे। युद्ध के बाद मरे इंसानों की संख्या से ही युद्ध के विध्वंस की जानकारी मिलती है। इससे पहले देशों के बीच सैन्य लड़ाई होती थी किन्तु ये एक बड़ा युद्ध सिद्ध हुआ।
आगे चलकर इसके प्रभाव के कारण ‘युद्ध को ग्रेट वॉर एवं ग्लोबल वॉर’ का नाम भी दिया गया। इसके अतिरिक्त इसे वॉर टू एन्ड आल वार्स भी बताया गया किन्तु ऐसा कुछ यही हुआ और दूसरा विश्व युद्ध भी हुआ।
प्रथम विश्व युद्ध
प्रथम विश्व युद्ध 28 जुलाई 1914 से 11 नवंबर 1918 के मध्य चलता रहा था। इसे महान युद्ध कहा गया जिसमे मृत लोगो की संख्या 1 करोड़ 70 लाख तक रही। इन मरने वालो में 1.10 करोड़ सैनिक एवं 60 लाख नागरिक थे और करीबन 2 करोड़ लोग जख्मी भी हो गए। युद्ध में एक ओर अलाइड शक्ति (रूस, फ्रांस, ब्रिटेन, यूएसए एवं जापान) और दूसरी ओर सेंट्रल शक्ति (ऑस्ट्रिया-हंगरी, जर्मनी एवं ऑटोमन एम्पायर) थे। वर्तमान समय में ऑटोमन, ऑटोमन तुर्की के क्षेत्र में आता है।
प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत
पहले विश्व युद्ध को शुरू करने में कोई एक घटना या वजह जिम्मेदार नहीं थी। यद्यपि ऐसी बहुत सी घटनाएँ क्रमबद्ध तरीके से हुई जिसमे दुनिया को इस खतरनाक त्रासदी में उतार दिया। 1890 में जर्मनी में नए राजा वेल्हम द्वितीय ने एक अंतर्राष्ट्रीय नीति की शुरुआत की थी। इस नीति ने जर्मनी को दुनिया की ताकत के रूप में बदलने की कोशिश की। इससे दूसरे देशों में जर्मनी के लिए तनाव पैदा हो रहे थे।
इसके बाद यूरोपियन देशों ने परस्पर मदद के लिए रक्षा समझौते एवं सन्धि कर ली। और कोई देश इन देशों में से एक पर हमला करेगा तो सभी आपस में सहायता देंगे। 1882 में जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी एवं इटली में जुड़ाव हुआ। दूसरी ओर एक नया गुट ब्रिटेन, फ्रांस एवं रूस भी साथ आये। 28 जुलाई 1914 के दिन एक सर्बियाई युवक ने ऑस्ट्रिया के आर्चड्यूक फ्रांसिस फर्डीनंद को मार दिया।
इस घटना से दोनों देशो के बीच संघर्ष एवं प्रथम युद्ध की शुरुआत हुई। ऑस्ट्रिया के ज्यादातर लोग साइबेरिया के जवाब से असंतुष्ट थे। फिर जर्मनी भी ऑस्ट्रिया की रक्षा के लिए लड़ाई में शामिल हो गया। इसके बाद दूसरे देश भी इस लड़ाई का हिस्सा बनते चले गए। ‘मित्र राष्ट्र’ के रूप में तुर्की, बुल्गारिया, जर्मनी एवं इटली साथ आये। जर्मनी ने ‘धुरी राष्ट्र’ गुट का नेतृत्व किया। जर्मनी के चान्सलर बिस्मार्क को गुप्त संधि प्रणाली एवं यूरोप गुटबंदी का जनक कहा गया।
प्रथम विश्व युद्ध कारण
इस बड़े युद्ध के कोई एक कारण नहीं कहे जाते है। इसके विभिन्न कारण थे किन्तु मुख्यतया युद्ध के कारणों को चार अक्षरों से देख सकते है। ये चार अक्षर है M – मिलिटरिज़्म, A – अलायन्स सिस्टम, I – इंपेरिज्म, N – नेशनलिज़्म यानी MAIN
मिलिट्रीज़्म (M)
संधियों में जुड़े सभी देशों ने अपने को हर प्रकार के हथियारों से परिपूर्ण करने की कोशिश की। ऐसे सभी देशों में उस समय में इस्तेमाल होने वाली बंदूके, टैंक, मशीन गन एवं बड़े जहाजों का आविष्कार हुआ। कई देश तो आने वाले समय के बड़े युद्ध के लिए बड़े-बड़े सैन्य कॉन्सेप्ट तैयार करने लगे थे। इन मामलों में ब्रिटेन एवं जर्मनी बहुत आगे थे चूँकि ये दोनों ही औद्योगिकीकरण में थोड़े आगे थे।
ये देश अपने औद्योगिक परिसर का इस्तेमाल भी अपनी सैनिक क्षमता में वृद्धि करने के लिए करने लगे थे। यहाँ उस समय की बड़ी कंपनियों ने मशीन गन और टैंक इत्यादि का निर्माण होने लगा। ऐसे देशों की मानसिकता बन गयी कि वो एक सैन्य शक्ति है और उनको कोई हरा नहीं सकता है। अन्य देश भी ब्रिटेन एवं जर्मनी की नकल करने लगे। इस प्रकार से देशों में मिलिट्रीज़्म एवं मॉडर्न आर्मी अवधारण की शुरुआत हो गई।
अलायन्स सिस्टम (A)
19वीं सदी में विश्व के विभिन्न देश के संधियाँ बनने लगे थे। बहुत सी सन्धियों को गुपचुप तरीके से किया जा रहा था। इसी दो देशों के बीच होने वाली संधि का किसी तीसरे देश को पता नहीं चलता था। इस समय पर मुख्यतया दो संधियाँ प्रसिद्ध हुई जिनके बहुत से दूरगामी प्रभाव देखने को मिले। ये दोनों संधियाँ इस प्रकार थी –
- साल 1882 की त्रि-पक्षीय संधि : सन 1882 में जर्मनी, आस्ट्रिया-हंगरी एवं इटली के मध्य गठबंधन हुआ।
- साल 1907 की त्रि-पक्षीय इंटेंट : सन 1907 में फ्रांस, ब्रिटेन एवं रूस के मध्य त्रिपक्षीय इंटेंट हुआ। 1904 में भी ब्रिटेन एवं रूस के मध्य कोर्दिअल इंटेंट नाम का गठजोड़ हो गया। इसमें रूस के आने से इसके ट्रिपल इंटेंट का नाम मिला।
- शुरू में तो इटली ने जर्मनी और ऑस्ट्रिया-हंगरी के ग्रुप में जुड़ाव रखा था परन्तु युद्ध के बीच में ही उसने अपना पाला बढ़ाकर फ्रांस एवं ब्रिटेन से ही युद्ध शुरू कर दिया।
इम्पिरीअलिज़म (I)
इस समय पश्चिमी यूरोप के सभी देश इस कोशिश में थे कि उनकी कॉलोनियां एवं साम्राज्य विस्तार अफ्रीका एवं एशिया तक हो। इसे ऐतिहसिक रूप से ‘स्क्रैम्बल ऑफ अफ्रीका’ अर्थात अफ्रीका की दौड़ कहा गया। इस समय सभी बड़े देश 1880 के बाद से अफ्रीका पर कब्ज़ा करने की होड़ में थे। अफ्रीका के लिए अपने अधिक से अधिक क्षेत्र को बचाने की चुनौती थी। यहाँ पर कब्ज़ा करने वाले देशों में फ्रांस, जर्मनी, हॉलैंड एवं बेल्जियम इत्यादि थे और इन देशों का नेतृत्व ब्रिटेन कर रहा था।
उसके नेतृत्व का कारण यह था कि ब्रिटेन का उस समय विश्वभर के 25 प्रतिशत भाग पर कब्ज़ा था। दूसरे देश भी इसकी कॉपी करना चाहते थे। अपनी साम्राज्यवादी नीतियों के कारण ब्रिटिश सरकार के पास भरपूर मात्रा में संसाधन आ गए थे। अब ब्रिटेन ने अपने सैन्य क्षमता में भी बढ़ोत्तरी करनी शुरू कर दी थी। ब्रिटेन ने इस नीति के तहत ही करीबन 13 लाख भारतीय सैनिको को युद्ध में भेजा जो उसके खुद के सैनिको से भी अधिक थे।
नेशनलिस्म (N)
19वीं शताब्दी में यूरोपियन महाद्वीप में राष्ट्रवाद की धारणा काफी जोरो से फ़ैल रही थी। जर्मनी, इटली एवं दूसरे बाल्टिक देश इत्यादि राष्ट्रवाद की भावना से काफी प्रभावित हो रहे थे। राष्ट्र की ही भावना ने इस लड़ाई को एक ग्लोरियस लड़ाई बना दिया। इस प्रकर से इस लड़ाई को ‘ग्लोरी ऑफ वॉर’ का भी नाम दिया गया। ये सभी देश इस धारणा में थे कि कोई भी देश युद्ध को जीतकर ही ‘महान’ देश की जगह लेगा।
ऐसे देश का आकार उसकी महानता का पैमाना हो गया। इस समय बहुत से पोस्टर युद्ध की स्थिति को दर्शाते थे इसी में से एक पोस्टर में कई देश एक दूसरे के पीछे से हमला कर रहे थे। इस पोस्टर में साइबेरिया को एक सबसे छोटे बालक के रूप में चित्रित किया गया था।
- राष्ट्रवाद के तहत ही जर्मनी एवं इटली का एकीकरण हुआ। बाल्कन क्षेत्र में राष्ट्रवाद का काफी प्रभाव था और उस समय तक बाल्कन प्रदेश तुर्की साम्राज्य में आता था। अतः जब तुर्की साम्राज्य कमजोर होने लगा तो बाल्कन क्षेत्र के लोगों में आजादी की माँग तेज़ होने लगी।
- बोस्निया एवं हर्जेगोविना के निवासी ‘स्लाविक लोग’ भी ऑस्ट्रिया-हंगरी से अलग होना चाहते थे और वे सर्बिया से जुड़ना चाहते थे। इनकी इच्छा भी प्रथम युद्ध का प्रमुख कारण रही।
- रूस ने सोचा कि स्लाव का ऑस्ट्रिया-हंगरी और तुर्की से आजाद होना वहाँ उसके असर को काफी बढ़ाएगा। इसी वजह से रूस में अधिल स्लाव एवं सर्वस्लाववाद आंदोलनों को ताकत देना शुरू किया। इससे रूस एवं ऑस्ट्रिया-हंगरी के बीच कटु सम्बन्ध हुए।
- इसी प्रकार से सर्वजर्मन आंदोलन जैसे राष्ट्रवादी प्रयासो एवं भावनाओं ने सामरिक तनाव पैदा किया।
प्रथम विश्वयुद्ध से जुड़े तथ्य
- रूस जापान के बीच लड़ाई का अंत अमरीकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट माध्यम से हुआ।
- पहले विश्वयुद्ध में जर्मनी ने रूस पर 1 अगस्त 1914 में एवं फ्रांस पर 3 अगस्त 1914 में आक्रमण किया।
- इंग्लैंड 4 अगस्त 1914 में पहले विश्वयुद्ध में शामिल हुआ।
- जर्मनी के यु-बोट द्वारा इंग्लैंड के लूसीतानिया नामक जहाज को डुबाने के बाद अमेरिका पहले विश्व युद्ध में शामिल हुआ। इस घटना में जुबे जहाज के 1153 मृत व्यक्तियों में से 128 अमरीकी नागरिक थे।
- लगभग 37 देशों ने पहले विश्व युद्ध में भागीदारी की।
- काला हाथ सर्बिया की गुप्त क्रांतिकारी संस्था थी।
युद्ध में भारत की भूमिका
प्रथम विश्व युद्ध के समय भारत ब्रिटैन की कॉलोनी थी। भारत के बड़े भौगोलिक भूभाग के संसाधनों का अंग्रेजी सरकार ने अच्छा लाभ लिया। साथ ही ब्रिटिश सरकार ने युद्ध के समाप्त होने पर भारत को स्वाधीनता देने की भी बात कही किन्तु बाद में राजी नहीं रहे। भारतीय सेना के ऊँचे पदों पर अंग्रेजी अधिकारी थे और अधिकतर सिपाही भारतीय ही थे। इस युद्ध के दौरान ब्रिटिश इण्डिया (म्यांमार, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश) के लगभग 11 लाख सिपाहियों ने भागीदारी की।
10 लाख सिपाही वर्तमान भारत के थे। इनके अलावा युद्ध में भारत के दूसरे संसाधनों जैसे करीबन 2 लाख मवेशी (घोडा, खच्चर एवं दुधारू पशु इत्यादि) भी बाहर ले जाया गया। भारत के सिपाही ब्रिटेन की ओर से लड़ने पर इसे अपनी स्वामीभक्ति ही मानते थे। उस समय भारत के लोग ब्रिटेन के शत्रु को अपना दुश्मन मानते थी और अंग्रेजी सरकार को भारत की ओर से मनचाहा सहयोग प्राप्त हुआ।
युद्ध को लेकर गाँव एवं शहर में अभियान चलाये गए। जनता ने भारी मात्रा में चन्दा जुटाया और बहुत से युवा सेना में भी भर्ती हुए। वे सभी मोर्चे पर जीजान से लड़ रहे थे। वैसे तो सेना में युद्ध के लिए जवान अपनी ख़ुशी से ही भर्ती हो रहे थे परन्तु जहाँ पर लोगो ने ना करने का प्रयास किया वहाँ अंग्रेजी सरकार ने जोर-जबरदस्ती भी की। किन्तु सेना में रखे जवानों के राशन, वेतन, भत्ते एवं अन्य सुविधा के मामले में भेदभाव किया जा रहा था। एक अंग्रेज सिपाही के खर्चे पर बहुत से भारतीय सैनिक रखे गए थे।
भारतीय सेना का युद्ध में प्रवेश
जून 1914 में ऑस्ट्रिया एवं सर्बिया के बीच लड़ाई से विश्व युद्ध-I शुरू हो गया। इसी साल सितम्बर के महीने में ब्रिटिश भारतीय सेना का युद्ध में प्रवेश हो गया। भारतीय सैनिको को तुर्की की एक निजी तेल कंपनी एंग्लो-पर्सियन के संरक्षण का काम मिला। और भारतीय सैनिको के दल को यूरोप भी भेजा गया। अंग्रेजी सरकार ने ईंधन के लिए तुर्की की तेल कंपनी को खरीदने की योजना बनाई।
तुर्की ने खबर मिलते ही सेना इकट्ठा कर ली इसके जवाब में अंग्रेजी सरकार ने भारतीय सैनिको के एक ‘अभियान बल D’ को इन तेल इलाको की रक्षा के लिए भेजा। भारतीय सैनिको को अक्टूबर 1914 में पानी के जहाज से बहरीन भेजा गया। ब्रिटेन के लिए भारतीय सैनिको ने (अभियान बल A के तहत) यूरोप, पूर्वी अफ्रीका एवं मध्य पूर्व इत्यादि जगहों पर युद्ध में भागीदारी की। भारत से 7 अभियान बल विदेश के अलग-अलग युद्ध मोर्चों पर पहुँचे।
अभियान बलों का विवरण
सितम्बर 1914 में ही अभियान बल A को यूरोप में पहुँचाया गया। भारतीय सिपाहियों ने फ़्रांसिसी सेना से मिलकर जर्मनी के विरुद्ध ‘ला बैसी एवं नव शपैल’ युद्धों में भागीदारी की। अभियान बल B को जर्मनी की सेना से लड़ाई के लिए पूर्वी अफ्रीका में भेजा गया। टोंगा के युद्ध में भी यही अभियान बल सम्मिलित रहा। पूर्वी अफ्रीका में ही अभियान बल C को जर्मन सेना के विरुद्ध लड़ाई के लिए भेजा गया।
यहाँ इनका मुख्य लक्ष्य युगाण्डा रेलवे एवं संचार तंत्र की देखरेख करना था। अभियान बल D को मध्य पूर्व (मेसोपोटामिया) में तुर्की के साथ युद्ध के लिए तैनाती मिली। अभियान बल E फिलिस्तीन की सेवा में भेजा गया और अभियान बल F स्वेज नहर को सुरक्षा के लिए भेजा गया। साल 1915 में अभियान बल G को गैलीपोनी शक्ति देने के लिए गठित किया गया। इस बल में अभियान बल F के सिपाहियों को शामिल किया गया था को यूरोप से बुलाये गए थे।
पहले विश्वयुद्ध के बाद भी भारतीय सिपाहियों का संघर्ष समाप्त नहीं हुआ। और साल 1919 में वे तीसरे अफगान युद्ध के लिए एवं इसके बाद साल 1920-24 में मध्य और साल 1919-20 के मध्य वजीरिस्तान के अभियान पर गए।
युद्ध में सम्मानित सिपाही
प्रथम विश्व युद्ध के बाद करीबन 74 हजार भारतीय सिपाही शहीद हो गए। इसके अतिरिक्त 66 हजार से ज्यादा भारतीय सिपाही चोटिल भी हुए। भारतीय सिपाहियों ने सभी अभियानों के अंतर्गत विभिन्न सैन्य संसाधनों के कमी के बावजूद भी अदम्य साहस का प्रदर्शन किया और युद्ध में ब्रिटेन को मजबूती प्रदान की। भारतीयों के योगदान का अनुमान इसी बात से लगा सकते है कि ब्रिटिश सरकार ने इन सिपाहियों के सम्मान में ‘विक्टोरिया क्रॉस’ देने का निर्णय किया।
ये सम्मान अंग्रेजी सिपाहियों को लड़ाई के समय साहस दिखाने के लिए मिलने वाला बड़ा सम्मान है। इससे पहले तक भारत के सिपाहियों को सर्वाधिक बड़े सम्मान के रूप में सिर्फ ‘इंडियन आर्डर ऑफ मेरिट’ ही मिल पाता था। लड़ाई के ख़त्म होने पर 11 भारतीय सैनिको को विक्टोरिया क्रॉस सम्मान प्राप्त हुआ। ये सम्मान व्यक्ति में अनुशासन के महत्व को बताते है।
- विक्टोरिया क्रॉस सम्मान को पाने वाले पहले सिपाही खुदादाद खान थे।
- इसके अतिरिक्त अन्य सिपाही दरवान सिंह नेगी, गब्बर सिंह नेगी, चट्टा सिंह, मीर दस्त, कुलबीर थापा, नायक लाला, शाहमद खान, गोबिंद सिंह, करणबहादुर राणा, बदलू सिंह भी सम्मिलित रहे।
शहीद सिपाहियों के लिए स्मारक
पहले विश्व युद्ध में बलिदान देने वाले सिपाहियों के लिए भारत के साथ विश्वभर में स्मारक एवं सग्रहालय बने। देश की राजधानी दिल्ली में साल 1931 में इण्डिया गेट को इस युद्ध में शहीद हुए सिपाहियों की स्मृति में बनाया गया है। ऐसे ही अमेरिका के कसाँस शहर में बना संग्रहालय, ब्रिटेन का छतरी स्मारक, फ्रांस के नव शैपेल का स्मारक, बेल्जियम के येप्रेस में युद्ध में लापता सैनिको के लिए स्मृति स्मारक मेनिन गेट मेमोरियल। ये सभी स्मारक पहले विश्वयुद्ध में भारतीय शहीद सिपाहियों के योगदान को याद करते है।
प्रथम विश्व युद्ध से जुड़े प्रश्न
पहले विश्व युद्ध के भारत पर क्या प्रभाव हुए?
अधिक रक्षा खर्च होने कारण युद्ध ऋणों को वित्तपोषित किया गया एवं टैक्स में बढ़ोत्तरी करके सीमा शुल्क भी बढ़ाया गया। साल 1913-18 के बीच कीमते दुगनी रही।
प्रथम विश्व युद्ध में भारत का क्या योगदान रहा?
युद्ध में 11 लाख भारतीय सैनिक शामिल हुए और 70 हजार युद्ध में शहीद भी हुए। इसके अलावा भारतीय नौसेना एवं फ्लाइंग कोर में भी सेवाएँ दी।
प्रथम विश्वयुद्ध कब हुआ?
28 जुलाई 1914 से 11 नवंबर 1918 के मध्य पहला विश्व युद्ध हुआ जिसको ‘महान युद्ध’ कहते है।
पहले विश्वयुद्ध में सबसे बड़ा हथियार कौन सा था?
इस युद्ध में तोपखाना सबसे बड़ा हथियार था और युद्ध के घायलों का सर्वाधिक बड़ा स्त्रोत प्रदान करता था।
पहले विश्व युद्ध के समय भारत का वायसराय कौन था?
पहले विश्वयुद्ध के दौरान साल 1914-16 के मध्य लॉर्ड होर्डिंग और साल 1916-18 तक लॉर्ड चेम्सफोर्ड भारत देश के वायसराय थे।