ब्रिटिश सरकार के पराधीन भारतीय नागरिको को एकजुट करके स्वतंत्रता के लिए अहिंसा एवं सत्याग्रह का रास्ता बताने के लिए महात्मा गाँधी (Mahatma Gandhi) को श्रेय मिलता है। पहले विश्वयुद्ध एक के बाद से ही भारतीय राजनीति में भी बहुत से बदलाव आये और इनको लाने में गांधीजी जैसे नेताओं का मुख्य योगदान रहा है। साल 1919 से देश की स्वतंत्रता तक गांधीजी को भारत की जनता का विशेष नेता के रूप में देखा जाता है। वे जनता के लिए राजनैतिक कार्यो के साथ आध्यात्मिक कार्यों में भी सलग्न रहे। इसी कारण उनके आन्दोलनों में अहिंसा का सिद्धांत स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। उन्होंने भारत की जनता को आजादी के लिए भारत छोड़ो आंदोलन, नमक आंदोलन एवं असहयोग आंदोलन में सीधे ही अपना भागीदार बनाया।

महात्मा गांधी की जीवनी
वास्तविक नाम | मोहनदास करमचंद गाँधी |
प्रचलित नाम | महात्मा गाँधी, बापू, राष्ट्रपिता |
जन्म-तिथि | 2 अक्टूबर 1969 |
जन्म स्थल | पोरबन्दर, गुजरात |
माता-पिता | पुतलीबाई गाँधी/ करमचन्द गाँधी |
व्यवसाय | वकील, नेता, लेखक, समाज सुधार |
पत्नी | कस्तूरबा गाँधी |
मृत्यु | 30 जनवरी 1948 |
शुरुआती जीवन
गाँधी जी का जन्म ब्रिटिशकालीन भारत के पश्चिमी राज्य गुजरात के एक तटीय शहर पोरबंदर में 2 अक्टूबर 1869 में हुआ था। इनके पिता का नाम करमचंद गाँधी था और माता पुतलीबाई एक ग्रहणी थी। इनका परिवार सनातन धर्म की पन्सारी जाति (गुजराती भाषा में गाँधी का अर्थ पन्सारी होता है) से सम्बंधित थे। इनके पिताजी ब्रिटिश सरकार की छोटी सी रियासत पोरबंदर एक दीवान थे। इनकी माता एक भक्तिमय स्त्री थे और बालक गाँधी पर इनकी माता के कारण इस क्षेत्र की जैन परम्पराओं का काफी प्रभाव पड़ गया। ये प्रभाव थे – अहिंसा, शाकाहार, उपवास एवं लोगों से सहिष्णुता।

विवाह
मई 1883 में उस समय की रीतियों के अनुसार गांधीजी का विवाह परिवार के लोगों ने 13 वर्ष की अल्पायु में कस्तूरबा बाई मकनजी (14 वर्ष) से कर दिया था। ये आमतौर से अपनी पत्नी को कस्तूरबा के संक्षिप्त नाम से पुरकारते थे। साल 1885 में इनकी पहली संतान का जन्म हुआ लेकिन वो अधिक दिनों तक जीवित न रह सकी। इसी साल इनके पिता का भी देहांत हो गया। इसके बाद गांधीजी को कस्तूरबा से चार संताने हुई जो सभी पुत्र थे। इनके नाम हरिलाल गाँधी, मणिलाल गाँधी, रामदास गाँधी, और देवदास गाँधी थे।

शिक्षा एवं विदेश में पढ़ाई
गाँधीजी अपने छात्र जीवन में एक अनुशासन रखें वाले छात्र थे और उनकी शुरू की शिक्षा राजकोट (गुजरात ) में हुई। इसके बाद गांधीजी ने साल 1887 में मुंबई विश्विद्यालय से हाई स्कूल की पढ़ाई पूर्ण की और आगे की शिक्षा के लिए भावनगर में शामलदास विद्यालय में प्रवेश ले लिया। उनके परिवार के सदस्य उन्हें बैरिस्टर के रूप में देखना चाहते थे। इसी के लिए साल 1888 में वे बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए लंदन (इंग्लैंड) के लिए रवाना हो गए। यहाँ पर उनका प्रवेश यूनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन में हो गया।
यहाँ पर गाँधीजी ने अपनी माता को दिए वचन का पालन करते हुए शाकाहारी भोजन ही लिया। यहाँ पर एक अलग छवि रखने वाले छात्र के रूप में गांधीजी ने ‘थियोसोफिकल सोसाइटी’ के मुख्य सदस्यों से मुलाकाते भी की। इस सोसाइटी को ‘विश्व बंधुत्व’ के लिए साल 1875 में स्थापित किया गया था और इसमें बौद्ध एवं सनातन धर्म के ग्रंथों का संकलन हुआ था। साथ ही वे अंग्रेजी रीति-रिवाजो के अभ्यास के लिए नृत्य की कक्षाओं में भी जाते थे। स्थियोसोफिकल सोसाइटी के लोगों के माध्यम से इन्होने शाकाहहारी समाज की सदस्यता भी ले ली। वे इस सोसाइटी के लिए पत्रिका लेख लिखते एवं सम्मलेन में जाते थे।

वकालत की शुरुआत
तीन वर्षों तक बेरिस्टर की पढ़ाई के बाद गांधीजी ने साल 1891 में स्वदेश वापसी कर ली। वे वेल्स बार एसोसिएशन के बुलावे पर मुंबई में वापिस आ गए। इन्ही दिनों इनकी माता का भी देहांत हो गया। यद्यपि ऐसे समय में भी गांधीजी ने धैर्य नहीं छोड़ा और अपने वकालत के काम को जारी रखा। भारत में उनको अपने वकालत के कार्य में खास सफलता नहीं मिल रही थी। यहाँ पर गांधीजी ने एक शिक्षक की नौकरी के लिए भी आवेदन किया किन्तु इनको यह नौकरी नहीं मिली। वे अपने जीवन यापन के लिए मुकदमो के लिए आवेदन लिखने का काम करते रहे किन्तु कुछ समय के बाद इसको भी छोड़ दिया।
इसी बीच उनको एक मुस्लिम व्यापारी के केस को लड़ने के लिए दक्षिण अफ्रीका में जाना पड़ा। साल 1893 में गांधीजी को एक साल के अनुबंध पर दक्षिण अफ्रीका में वकालत का काम मिला। उनका अनुबंध ब्रिटिश सरकार की फर्म नेटल से हुआ था।
दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी (1893-1914)
यहाँ पर उनको ट्रैन में यात्रा के दौरान रंगभेद एवं बुरे व्यवहार का सामना करना पड़ा। उनके पास रेल के पहले दर्जे की टिकट होने के बाद भी तीसरे दर्जे में यात्रा करने को कहा गया चूँकि ये क्लास केवल यूरोपियन नागरिको के लिए ही उपलब्ध थी। जब उन्होंने विरोध किया तो उनको रेल से बाहर धकेलकर गिरा दिया गया। इसी स्टेशन पर गाँधी जी का बहुत सा समय यह सोचते हुए बीता कि शोषित लोगों का जीवन कैसा होता है। दक्षिण अफ्रीका में पहुँचने पर गांधीजी को बहुत से होटल्स में प्रवेश की अनुमति नहीं मिल पा रही थी।
एक अन्य घटना में एक अदालत के न्यायाधीश ने उनको अपनी पगड़ी भी उतारने का आदेश दिया था जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया। इस प्रकार की पीड़ादायक घटनाओं की वजह से गांधीजी को सामाजिक अन्याय पर चिंतन करने के लिए प्रेरित कर दिया और यही से उनके सामान्य व्यक्ति के जीवन में विशिष्ट बदलाव शुरू हो गए।

रंगभेद के विरुद्ध संघर्ष
उस समय ब्रिटिश सरकार गांधीजी के साथ अश्वेत नीति के अंतर्गत बहुत खराब व्यवहार कर रही थी। इसी सब के कारण उनका इस नीति को लेकर विक्षोभ हुआ और उन्होंने रंगभेद के विरोध में संघर्ष करने की शुरुआत कर दी। इस प्रकार से अत्याचारों के विरोध में गांधीजी ने स्थानीय प्रवासियों को एकजुट करके साल 1894 में ‘नटाल भारतीय कांग्रेस’ की स्थापना कर दी। इसके साथ ही वे इंडियन ओपिनियन समाचार पत्र को निकलने लगे। साल 1906 में दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों को लेकर “अवज्ञा आंदोलन” को शुरू कर दिया जिसे बाद में ‘सत्याग्रह’ नाम दिया।
साल 1906 में ही जुलु (सा.अफ्रीका) में नया चुनाव कर लगाया गया और दो अंग्रेजी सिपाहियों की हत्या हो गयी। इसके बाद अंग्रेजों ने जुलु के खिलाफ लड़ाई शुरू कर दी। गाँधीजी ने इस लड़ाई में भारतियो की नागरिकता क क़ानूनी मान्यता देने के लिए अंग्रेजी अधिकारीयों को भारतीयों की भर्ती के लिए प्रेरित किया। भारतीयों को घायल अंग्रेजी सिपाहियों को स्टेचर पर लाने का काम मिल सका, जिसकी बागडोर गांधीजी के ही हाथ में थी। साल 1906 के मसौदे अध्यादेश को गांधीजी ने भारतीयो की स्थिति को नीचे स्तर तक लाने वाला बताया। उन्होंने भारतीयों को सत्याग्रह की तरह ही काफिर का उदाहरण देते हुए मसौदे का विरोध करने के लिए कहा।
भारत में स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत
साल 1916 में गांधीजी अपने देश में रहने के लिए वापिस आ गए। देश के कुछ सामाजिक लोग उनके अफ्रीका वाले कार्यों के प्रभावित थे खासतौर पर उनके विरोध के नए तरीको से। यहाँ आकर उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस के अधिवेशन में भाग लेते हुए अपने विचार रखने शुरू कर दिए। उनके विचार तत्कालीन कांग्रेस पार्टी के सम्माननीय नेता गोपाल कृष्ण गोखले से काफी प्रभावित रहे। गाँधीजी भारत में जनता पर होने वाले अत्याचारों एवं अमानवीय वर्ताव को भी देखा जिसने उन्हें ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध कार्य करने के लिए काफी उत्तेजना दी। इस प्रकार से वे गुलामी के विरुद्ध स्वतंत्रता के आंदोलन में पूरी तरह से भागीदारी देने लगे। 1920 में कांग्रेस नेता बाल गंगाधर तिलक का देहांत होने पर गांधीजी को कांग्रेस का ‘मार्गदर्शक’ नियुक्ति किया गया।
पहले विश्वयुद्ध (1914-19) में अंग्रेजी सरकार से गाँधीजी ने एक अनुबंध भी किया कि इस युद्ध में अच्छे से सहयोग करने पर वे भारतीयों को आजादी दे देंगे। इसके बाद भारतीय सैनिक पूर्ण निष्ठा से इस युद्ध में अंग्रेजी सरकार के लिए लगे थे। किन्तु युद्ध में विजय होने के बाद भी अंग्रेजी सरकार ने अपने वचन को नहीं निभाया। इसके बाद गांधीजी ने देश को स्वतंत्र करने के लिए नए आंदोलन काफी जोरो से राष्ट्रीय स्तर पर चलाये।
भारत में गांधीजी के आन्दोलन
गाँधीजी ने अंग्रेजी सरकार को टक्कर देने के लिए सामाजिक एकता, सत्याग्रह एवं आन्दोलानो को अपना मुख्य हथियार बनाये रखा। इसी कारण से उनके पांच मुख्य आन्दोनलों में से तीन राष्ट्रीय स्तर के रहे। वे आम किसान एवं श्रमिक वर्ग के लोगों को अपने आंदोलनों के जोड़ने पर जोर देते थे। उनके कुछ प्रमुख आंदोलन निम्न प्रकार से है –
चंपारण-खेड़ा सत्याग्रह (1918)
ये आंदोलन उन्होंने साल 1918 में शुरू किया था और इससे उनके देश में आंदोलनों की शुरुआत हो गयी। इस सत्याग्रह को उन्होंने ब्रिटिश लैंडलॉर्ड (जमींदार) के विरोध में किया था और इसमें उनको सफलता भी मिल गयी थी। यहाँ के लैंडलॉर्ड स्थानीय कृषको को नील की खेती करने के लिए दबाव दे रहे थे और इसके साथ ही एक खास मूल्य पर अपनी फसल को बेचने के लिए बाध्य कर रहे थे। ये कृषक इस बात के सख्त विरोध में थे। किसानो ने गांधीजी से सहायता माँगी और वे वहाँ अहिंसात्मक आंदोलन चलाने लगे। अंत में अग्रेजो को उनकी माँगे माननी पड़ी और गांधीजी को आंदोलन सफलता का भी मिली।
- खेड़ा गाँव कर आंदोलन – इसी वर्ष गुजरात में बाढ़ से नुकसान हुआ। इसके बाद किसान अंग्रेजी सरकार के लगाए कर को देने में असमर्थ थे। यहाँ के किसानों ने भी गांधीजी से सहायता की माँग की और वे असहयोग को अपना हथियार बनाकर कर (Tax) में रिहायत के लिए आंदोलन करने लगे। जनता ने भी इस आंदोलन में काफी बढ़चढ़कर भागीदारी दी। इसी सामाजिक एकता के कारण अंत में अंग्रेजी सरकार को मई 1918 में कर से जुड़े कानूनों में कृषको को रिहायत देनी पड़ी।

खिलाफत आंदोलन (1919)
साल 1919 में कांग्रेस पार्टी का जनता के बीच कुछ प्रभाव कम हो रहा था। गांधीजी ने इस बात को देखते हुए हिन्दू-मुसलमान एकता के सिद्धांत पर काम करना शुरू कर दिया। वे इन दोनों समुदाय को एक करके अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध आंदोलन करके की कोशिश में थे। इसी प्रयास में वे मुस्लिम समुदाय के पास ‘खिलाफत आंदोलन’ को लेकर गए और इसे वैश्विक स्तर तक चलाने का भी काम किया। गांधीजी ने भारत के सभी मुसलमानों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कॉन्फ्रेंस का आयोजन किया और इसके प्रमुख व्यक्ति भी बने। इस आंदोलन को मुस्लिम जनता का अच्छा समर्थन मिला और वे राष्ट्रीय नेता के रूप में उभरे। किन्तु साल 1922 में खिलाफत आंदोलन पूरी तरह से बंद हो गया। किन्तु वे इसके बाद भी हिन्दू-मुस्लिम एकता के सूत्र पर काम करते रहे।
असहयोग आंदोलन (1920)
राष्ट्रीय माहौल को देखते हुए ब्रिटिश सरकार ने साल 1919 में आंदोलनों का निपटारा करने वाले ‘रोलेट एक्ट’ को लागु कर दिया। इसी को लेकर गांधीजी ने देश में कुछ सभाओं का आयोजन भी किया। उनकी सभाओं की ही तरह कुछ अन्य सभाएँ भी आयोजित होने लगी। ऐसी ही एक सभा पँजाब राज्य के अमृतसर शहर के जलियावाला बाग़ में भी आयोजित हो रही थी। किन्तु अंग्रेजी अधिकारी ने इस शांतिपूर्ण सभा को क्रूरता से गोलीबारी से कुचल डाला। इस घटना ने देश में राष्ट्रीय शोक की लहर पैदा की और गाँधीजी ने भी साल 1920 में असहयोग आंदोलन को शुरू कर दिया। इस आंदोलन का उद्देश्य भारतीयों द्वारा अंग्रेजी सरकार को किसी भी प्रकार का सहयोग ना देना था। किन्तु इसमें किस भी प्रकार की हिंसा का स्थान नहीं था।
भारतीय जनता अंग्रेजी सरकार की सेवा एवं समान को लेकर सहयोग ना दे तो उनका यहाँ अस्तित्व समाप्त हो सकता है। इसी कारण से भारतीयों को भी ये बात अच्छे से समझ आ गयी और ये एक राष्ट्रीय आंदोलन बन गया। लोगों ने अपनी सरकारी नौकरी, ऑफिस, फैक्टरी इत्यादि को छोड़ना शुरू कर दिया। साथ ही सरकारी विद्यालय एवं विश्विद्यालयों से भी बच्चे निकाले गए। किन्तु साल फरवरी, 1922 में ‘चोरा-चोरी’ घटना के कारण यह आंदोलन वापिस ले लिया गया।
सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930)
गांधीजी ने साल 1930 में एक और राष्ट्रीय आंदोलन को शुरू किया था, सविनय अवज्ञा आंदोलन। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य अंग्रेजी सरकार के बनाये नियम-कानूनों को नही मानना और इनकी अवहेलना कर देना। समय अंग्रेजी सरकार ने एक कानून पारित किया था कि कोई भी भारतीय नमक नहीं बनाएगा, गांधीजी ने इसी का विरोध शुरू कर दिया। 12 मार्च 1930 के दिन गांधीजी ने अपने अनुयायियों के साथ मिलकर ‘दांडी यात्रा’ शुरू कर दी जिसका उद्देश्य उस स्थान पर जाकर नमक बनाकर सरकार के कानून की अवहेलना करना था। ये सभी गुजरात के अहमदाबाद के नजदीक साबरमती आश्रम से आंदोलन को शुरू किया और 5 अप्रैल तक दांढी (गुजरात) नाम की जगह पर पहुँचे। यहाँ पर उन्होंने पाने अनुयायियों के साथ मिलकर नमक बनाया।
ये देश की आजादी में जरुरी कदम था चूँकि उन्होंने नमक को बनाकर अंग्रेजी सरकार के नमक बनाने के एकाधिकार को सीधे चुनौती दी थी। इसके बाद तो यह आंदोलन भी देशभर में फ़ैल गया था। गांधीजी ने 24 दिनों अपनी यात्रा को पूर्ण कर लिया था और साबरमती से दांडी तक करीबन 390 किमी की दूरी को तय किया था। उन्होंने सरकार को बिना टैक्स दिए नमक बनाया और उनके साथ शुरू में 78 स्वयंसेवक थे जिनकी संख्या बढ़कर हजार तक हो गयी थी। इस आंदोलन को भी अहिंसात्मक तरीके से चलाकर गांधीजी एवं उनके नेताओं ने अंग्रेजी सरकार को अपनी गिरफ्तारियाँ दी।
दलित आंदोलन एवं निश्चय दिवस
साल 1932 में देश में दलित नेता एवं विद्वान डॉ भीम राव अम्बेडकर ने चुनाव प्रचार के द्वारा ब्रिटिश सरकार से अस्पर्शी नागरिको के लिए नए संविधान में अलग निर्वाचन को स्वीकृत करवा लिया था। इसी बात का विरोध करते हुए गांधीजी ने इसी वर्ष छः दिनों के अनशन शुरू कर दिया। इससे सरकार को दबाव में आकर दलितों के राजनीतिक नेता पलवंकर बालू को मध्यस्थता देकर एक बराबरी वाली व्यवस्था को लाना पड़ा। गांधीजी ने अछूतों के जीवन को सुधारने के लिए नए अभियानों को शुरू किया। गांधीजी ने अछूतों को ‘हरिजन’ की उपाधि दी। 1933 में गांधीजी ने ‘हरिजन आंदोलन’ से 21 दिनों का आत्मशुद्धि किया। ये अभियान दलितों को ज्यादा पसंद नहीं आया किन्तु गांधीजी फिर भी उनके नेता बने रहे।
अम्बेडकर ने ‘हरिजन’ उपाधि की निंदा की है और इसको सामाजिक रूप से अपरिपक्व बताया। वे मानते थे कि गांधीजी दलित अधिकारों को कमतर आँकते है। किन्तु गांधीजी ने अपने कार्यों को जारी रखा और केरल में गांधीजी के समर्थक श्री केलप्पन ने उनकी अनुमति से मंदिर में दलित प्रतिबद्ध के विरुद्ध आवाज उठाकर 1933 में सविनय अवज्ञा शुरू किया। मंदिर के ट्रस्टी ने बैठक के माध्यम से यह तय किया कि हरिजनों को मंदिर प्रवेश की अनुमति दी जाए। इस प्रकार से गांधीजी के प्रेरणा से पहली जनवरी की तिथि को ‘प्रेरणा दिवस’ के रूप में मनाने की शुरुआत होने लगी। साल 1934 में ही गांधीजी के ऊपर तीन असफल जानलेवा प्रयास भी हुए।
भारत छोड़ो आंदोलन
साल 1939 में दूसरे विश्व युद्ध को शुरू हो गया। शुरू में तो गांधीजी अंग्रेजी सरकार को अहिंसात्मक नैतिक समर्थन देने के पक्षधर थे किन्तु अन्य कांग्रेसी नेता बिना परामर्श के भारतियों की युद्ध में भागीदारी के विरोध में थे। सभी सदस्यों ने एक साथ आकर कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। किन्तु जैसे ही युद्ध बढ़ने लगा तो गाँधीजी ने सरकार के समक्ष स्वतंत्रता की मांग को ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ विधेयक से गति देनी शुरू की। वे अंग्रेजो को भारत से वापिस करने की मंशा रखते थे। ये आंदोलन संघर्षरत रहा और इसमें काफी हिंसा एवं गिरफ्तारियाँ भी हुई। पुलिस के बल एवं गोलियों से हजारों की संख्या में आंदोलनकारी मारे गए या घायल हो गए।
अगस्त 1942 में गांधीजी एवं उनके समर्थको को मुंबई में गिरफ्तार किया गया। इसके बाद दो सालों तक गांधीजी को पुणे के आंगा खां महल में बंदी करके रखा गया। कारावास के 18 महीने होने पर 22 फरवरी 1944 के दिन उनकी पत्नी कस्तूरबा का भी निधन हो गया। यही पर गाँधीजी को भी मलेरिया के कारण से स्वास्थ्य समस्या होने लगी। 1944 में युद्ध के विराम से पहले गांधीजी को रिहा कर दिया गया। आंदोलन को आंशिक रूप से कामयाबी जरूर मिली और गांधीजी के द्वारा आंदोलन समाप्ति के बाद करीबन 1 लाख राजनीतिक बंदियों को भी छोड़ दिया गया।
गांधीजी के आंदोलनों की विशेषताएँ
- गांधीजी के आन्दोलनों को शांतिपूर्ण तरीके से किया जाता था।
- यदि आन्दोलनों में ज्यादा उपद्रव एवं हिंसा हो जाती थी तो आंदोनल निरस्त हो जाते थे।
- सभी आंदोलन सत्य एवं अहिंसा की ताकत से चलाये जाते थे।
यह भी पढ़ें :- महाराज धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री कौन है?
गांधीजी की मृत्यु (हत्या)
30 जनवरी 1930 में साय की प्रार्थना सभा के समय नाथूराम गोडसे नामक व्यक्ति की गोलियों से गाँधीजी की मृत्यु हो गयी।
शिक्षा के लिए गांधीजी के विचार
यदि गांधीजी की शिक्षा के लिए बातों को देखे तो वह सभी के लिए आत्मनिर्भर शिक्षा को बढ़ावा देने पर ध्यान देने के लिए प्रेरित कर रहे है। इस प्रकार से व्यक्ति अपना सर्वांगीण विकास करके विकास के रास्ते पर चल सकेगा। वे किसी भी चीज को सीखने के लिए अपने आप करके देखने पर जोर देते थे। वे विभिन्न विषयों पर आपसी चर्चा और प्रश्न-उत्तर को काफी कारगर उपाय मानते थे। वे बच्चों की शारीरिक शिक्षा के लिए विभिन्न क्रियाकलापों पर भी जोर देते थे।
- 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों को अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा मिले।
- शिक्षा को शिल्प केंद्रित हो।
- मातृभाषा में ही शिक्षा मिले नाकि अंग्रेजी भाषा में।
- करघा उद्योग, हस्तकला आदि की भी शिक्षा मिले और हुनर आधारित कार्य जैसे खेती, कास्तकारी, बुनाई-सिलाई, कताई, मछली पालन, उद्यान कार्य, मिट्टी कला, चरखा आदि दिखने को मिले।
गांधीजी के कुछ प्रमुख नारे
- आपका भविष्य आपके करने पर निर्भर करता है।
- करो या मरो
- बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत बोलो।
- शक्ति शारीरिक क्षमता के बजाए अदम्य इच्छा शक्ति से मिलती है।
- अपने जीवन को इस प्रकार से जियो कि तुम कल मरने वाले हो।
- इस प्रकार से सीखो कि तुम को लम्बे समय तक जीवित रहना है।
- काम का गलत प्रयोग आपके मन को दूषित और अशांत करता है।
- सत्य कभी भी उचित कारणों को हानि नहीं पहुँचाता है।
- आपके सोचने, बोलने एवं करने में सामंजस्य होने पर ही ख़ुशी मिल सकती है।
महात्मा गांधी से जुड़े प्रश्न
गांधीजी का जन्म कब हुआ था?
2 अक्टूबर 1969 को गाँधी जी का जन्म हुआ था
गांधीजी का देश में पहला आंदोलन कौन सा था?
सविनय अवज्ञा आंदोलन (1917) में चम्पारण सत्याग्रह।
गांधीजी की शैक्षिक योग्यता क्या है?
गाँधी जी ने वकालत की डिग्री की ली थी।